पूरी जगन्नाथ मंदिर का इतिहास हिन्दी में
श्री जगन्नाथ मंदिर भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी में स्थित है। श्री जगन्नाथ जी कृष्ण का ही एक रूप है। श्री कृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं। जगन्नाथ पुरी में मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा जी की काष्ठ की मूर्तियों के रूप में विद्यमान है। जगन्नाथ का अर्थ है पूरे जगत के नाथ।
स्कंद पुराण और ब्रह्मपुराण के अनुसार भगवान विष्णु नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए जो सबर जाति के देवता हैं। जगन्नाथ पुरी चार धामों में से एक माना जाता है। धर्म ग्रंथों में पूरी क्षेत्र को शंख क्षेत्र, श्री क्षेत्र, नीलांचल और नीलगिरी भी कहा गया है। जगन्नाथ पुरी को धरती का बैकुंठ कहा जाता है।
Puri Jagannath Idols History In Hindi
राजा इंद्रद्युम्न मालवा के राजा थे। वह भगवान विष्णु के परम भक्त थे। एक बार राजा इंद्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वपन में आदेश दिया कि नीलांचल पर्वत पर एक गुफा में उनकी नीलमाधव मूर्ति विद्यमान है। तुम मंदिर बनवा कर मूर्ति जहां स्थापित कर दो।
राजा इंद्रद्युम्न में एक ब्राह्मण विद्यापति को भगवान का विग्रह ढूंढने का आदेश दिया। काफी खोज करने के पश्चात जब विद्यापति को पता चला कि राजा विश्ववसु एक गुफा में भगवान नीलमाधव की पूजा करते हैं। उन्होंने राजा से वह मूर्ति के दर्शन करवाने की इच्छा प्रकट की। लेकिन राजा विश्ववसु ने उन्हें स्पष्ट रूप से मना कर दिया।
कुछ समय के पश्चात विद्यापति ने राजा विष्णु की पुत्री ललिता से विवाह हो गया। विवाह के कुछ समय पश्चात विद्यापति ने ललिता से उन्हें नीलमाधव की मूर्ति के दर्शन करने की इच्छा जताई। ललिता ने अपने पिता को विद्यापति को उस मुर्ति के दर्शन करवाने के लिए कहा। अपनी पुत्री के कहने पर विश्ववसु विद्यापति को मूर्ति के दर्शन करवाने के लिए मान गया। लेकिन उन्होंने विद्यापति ने आंखों पर पट्टी बांध दी।
लेकिन विद्यापति चतुराई दिखाते हुए मार्ग में निशानी के तौर पर सरसों के बीज गिराता चला गया ताकि बाद में उसे मार्ग आसानी से पता चल जाए।
कुछ समय पश्चात विद्यापति ने मूर्ति वहां से चुराई और राजा इंद्रद्युम्न को सौंप दी। लेकिन भगवान की मूर्ति चोरी होने के कारण भगवान का भक्त विश्ववसु बहुत व्यथित था। अपने भक्त की व्यथा देखकर भगवान उसके पास वापस लौट गए।
भगवान ने राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तुम मेरे एक मंदिर का निर्माण करो और जब मंदिर तैयार हो जाएगा तो तुम्हें समुद्र में लकड़ी का एक लट्ठा मिलेगा तुम उससे मेरी मूर्ति का निर्माण करवाना।
समुद्र से राजा को लकड़ी का लट्ठा मिला लेकिन कोई भी कारीगर कर उससे मूर्ति बनाने में असमर्थ था। तब किसी ने उसे विश्वकर्मा की पूजा करने के लिए कहा। राजा ने विधिवत तरीके से पूजा की तो विश्वकर्मा एक बढ़ई के रूप में राजा के पास आ गए । उन्होंने यह शर्त रखी कि मैं जिस स्थान पर मूर्ति का निर्माण करूंगा वहां 21 दिनों तक वहां कोई नहीं आएगा। अगर उससे पहले दरवाजा खुला तो मैं वहां से चला जाऊंगा।
लेकिन जब कुछ दिनों तक दरवाजा नहीं खुला और अंदर से कोई आवाज भी नहीं आई तो राजा इंद्रद्युम्न की पत्नी गुड़िचा को चिंता होने लगी। वह राजा से कहने लगी कि," अंदर से कोई आवाज़ नहीं आ रही। कही उस बूढ़े बढई को अंदर कोई परेशानी तो नहीं।" राजा रानी को समझाने लगे कि उन्होंने मुझ से कहा कि मूर्ति निर्माण से पहले कोई भी अंदर नहीं आएगा।
रानी की जिद्द के बाद राजा ने दरवाजा खोलने का निर्णय किया। लेकिन वृद्ध बढ़ाई वहां से गायब हो चुका था। लेकिन बलभद्र, जगन्नाथ और सुभद्रा जी की काष्ठ की मूर्तियां विद्यमान थी। उन मूर्तियों के हाथ और पैर नहीं थे। अधूरी मूर्तियों को देखकर राजा चिंतित और दुःखी हो गया।
उसी समय भगवान की आकाशवाणी हुई कि मैं इसी रूप में रहना चाहता हूं । मैंने द्वापर युग में नारद जी को वचन दिया था इस रूप में अपने भक्तों को दर्शन दूंगा।
श्री कृष्ण के नारद जी को वचन देने की कथा
JAGANNATH STORY IN HINDI:पौराणिक कथा के अनुसार रुकमणी और अन्य रानियों की कृष्ण की बाल लीलाएं सुनने की इच्छा हुई। उन्होंने माता रोहिणी से अनुनय विनय करते हुए कहा कि," वह हमें श्री कृष्ण की बाल लीला सुनाएं।"
माता रोहिणी के मुख से श्री कृष्ण की बाल लीला सुनते-सुनते सुभद्रा इतनी मंत्रमुग्ध हो गए कि उन्हें अपनी सुध नहीं रही कि कब श्री कृष्ण और बलराम वहां आ गए।
माता रोहिणी श्री कृष्ण और बलराम की लीलाएं सुनाती रही। बाल लीला का वर्णन सुनते ही तीनों इतने मंत्रमुग्ध हो गए थे कि प्रेम भाव से तीनों के अंग पिघलने लगे और आंखें बड़ी हो गई।
तभी नारद जी वहां आ गए और नारद जी ने तीनो भाई बहनों के ऐसे रूप के दर्शन किए। लेकिन नारद जी के आने का पता लगते ही तीनों अपने वास्तविक रूप में आ गए और अंदर माता रोहिणी को भी आभास हुआ कि कोई बाहर खड़ा है उन्होंने भी कथा वही रोक दी।
नारद जी ने श्री कृष्ण से विनती कि, "प्रभु मैंने आप तीनों के जैसे रूप के दर्शन किए हैं आप अपना वैसा रूप सब के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सुशोभित करें। श्री कृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा जी का यही रूप जगन्नाथ जी में सुशोभित है।
ऐसा कहा जाता है कि श्री कृष्ण ने जब देह त्याग किया तो उनका दिल अंतिम संस्कार के पश्चात भी धड़क रहा था जिसे जल में प्रवाहित कर दिया गया। उनका वही हृदय जगन्नाथ पुरी की मूर्ति में स्थापित है।
लगभग 12 वर्ष के पश्चात जगन्नाथ जी की मूर्ति को बदला जाता है। उस दौरान पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है और मंदिर परिसर को CRPF चारों ओर से घेर लेती है। मंदिर परिसर में जाने पर पाबंदी होती है।
मंदिर के पुजारी की आंखों पर पट्टी होती है और हाथों में दस्ताने पहनाएं जाते हैं। पुजारी पुरानी मुर्ति से ब्रह्मा पदार्थ बाहर निकालते हैं और नई मूर्ति में डाल देते हैं । ब्रह्म पदार्थ का रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया। हजारों सालों से आज तक इसे किसी ने भी नहीं देखा। इसे एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
मूर्ति में ब्रह्म पदार्थ स्थानांतरित करने वाले पुजारियों का कहना है कि," ब्रह्म पदार्थ जब हाथ में लेते हैं तो ऐसा लगता है कि मानो कोई खरगोश उछल रहा हो। हाथों में दस्ताने और आंखों में पट्टी के कारण हम केवल उसे महसूस ही कर सकते हैं।"
जगन्नाथ पुरी मंदिरों हजारों साल पुराना है। मंदिर का पुनर्निर्माण 12 शताब्दी में राजा गंगेश्वर अनंतदेव चोड़गंग देव ने करवाया था। उसके पश्चात बहुत बार मंदिर का जीर्णोद्धार होता रहा। 1558 में अफगान जरनल काला पहाड़ ने पूरी पर हमला कर दिया तो मंदिर की मूर्तियों को बचाने के लिए उन्हें किसी अन्य जगह पर छुपा दिया गया। राजा रामचंद्र देव ने अपना राज्य स्थापित करने के पश्चात पुनः मूर्तियों की स्थापना की। जगन्नाथ मंदिर की वास्तुकला कलिंग शैली की है।
जगन्नाथ मंदिर के रोचक तथ्य Jagannath Temple Amazing Facts
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	जगन्नाथ पुरी मंदिर की परछाईं नहीं दिखती। 
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	जगन्नाथ पुरी मंदिर समुद्र के किनारे स्थित है। मंदिर के सिंहद्वार में प्रवेश करते ही लहरों की आवाज बंद हो जाती है और मंदिर से बाहर कदम रखते ही लहरों की आवाज आनी शुरू हो जाती है। 
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	मंदिर का ध्वज सदैव हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। 
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	जगन्नाथ पुरी मंदिर के ऊपर से पक्षी और विमान नहीं गुजरते। 
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	जगन्नाथ जी की रसोई में बना भोजन कभी कम नहीं पड़ता। जगन्नाथ जी की की रसोई में प्रसाद मिट्टी के बर्तनों में पकाया जाता है और सबसे रोचक बात यह है कि भोजन पकाने के लिए एक के ऊपर एक सात बर्तन रखें जाते हैं लेकिन सबसे ऊपर वाले बर्तन का प्रसाद सबसे पहले बनता है। 
प्रतिवर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को रथ यात्रा निकाली जाती है। भगवान जगन्नाथ बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर गुड़िया मंदिर जाते हैं। रथयात्रा में शामिल होने के लिए देश-विदेश से श्रद्धालु जगन्नाथ पुरी आते हैं। 
जगन्नाथ जी की बहुदा यात्रा की कहानी
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